जागने की हसरत थी रोशिनओं में
मुझे जगाए रखा अंधेरों की ठोकरों ने।
जो नहीं समझ पाते अंधेरों की जागृित
वो कैसे समझेंगे मेरा जागरण
वो कैसे समझेंगे मेरे अंधेरों के उजाले
वो सो रहे हैं आँखें खोल कर
अंधेरों से अंधेरा पैदा हो यह ज़रूरी नहीं
पर ये वो नहीं समझते
जो बौद्धिक अंधकार के शिकार हैं।
जो नहीं समझ पाते मौन प्रवृत्ति
वो कैसे समझेंगे मेरी खामोशी
वो कैसे समझेंगे मौन अंबर का दहक
वह कैसे समझेंगे मौन धरा का संयम
अब कौवा नहीं आता हमारी डेहरी पर
शायद वह भी ऊब चुका है हमारे कांव-कांव से
हमें पसंद है कांव-कांव प्रतियोगिता का विजेता बनना
और वह कौवा शायद कहीं छुप कर
हमारे इस पराजय का शोक मना रहा हैं।
लोग यहां अनिगन कोष्ठकों में सीमित
बुनते रहते हैं अपना समीकरण
शून्य के सत्य से बेखबर
जो उनकी कोष्ठकों के बाहर है घात लगाए
में खुश हूं कि इन संख्याओं से परे
जीता हूं अपने सत्य में अपनी शून्यता में
जो समझो मुझे सोया हुआ
तो मुझे जगाना मत।
Picture by Daniel Jenson (Unsplash)